Tuesday, December 22, 2015

रिश्तो के दामन को आंसुओं से भिगो देती हर एक बात जो तुमने कही, मैंने हर उस लव्ज़ में अपनी ख्वाहिशो को पल पल दम तोड़ते हुए  देखा था....याद  है आज भी वह गुलाबी जाड़े की नवंबर की रात,११:३० की वो ट्रेन जिसे उसी दिन टाइम पर भी आना था। वक़्त ना जाने क्यों पंख लगा कर उड़ रहा था हर घड़ी और मै वक़्त को ही वक़्त से छीन लेना चाहता था....पर यह कमबख्त कब रुका है किसी के लिए। शायद आखिरी बार मिल रहे थे हम दोनों,ना चाहते हुए भी उस भीड़,कोलाहल भरे हुए प्लेटफार्म पर मीलो लम्बी ख़ामोशी थी, हम दोनों के बीच,ज़र्द सा चेहरा लिए हुए मैंने तुमसे पुछा था... "फिर सोच लो एक बार,रिश्ते तो बहुत बनेंगे ज़िन्दगी में,पर खूबसूरत,पाक बहुत कम"... और तुम्हारी ख़ामोशी सब कुछ कह गयी उस  दिन । 

आज भी कभी कभी याद आती है वो रात, तो पलकों के करीनो पर बेवजह ही नमी सी लगती है वही कमरा है,वही पंखा आज भी चलता है, तकिया है पर कभी नम मालूम देता है,और उस नाचते हुए पंखे मे, मै अपनी सारी बीती हुई ज़िन्दगी को घूमते हुए देखता हूँ। वह तुम्हारा बेपरवाह,बेवजह,अल्हड़ जवानी की देहलीज़ पर पैर रखते हुए बचपन के जैसा,जो अतीत से पूरा निकला भी न हो और जो भविष्य को दोनों बाँहों मे भरने को आतुर हो,वोह गंगा जैसा पवित्र,निश्छल प्रेम,अब बहुत याद आता है। 

हम तो बेपरवाह ही चल रहे थे अकेले राहों मे,तुमने हाँथ थाम कर एहसास दिलाया मंज़िलों के होने का,आज निशां नहीं बाकी,उन रिश्तों का जो कभी दिल के करीब थे... यूहीं रास्तों मे लोग मिलते गये, रिश्ते बनते गए और लोग बिछड़ते गए,कुछ रिश्ते दिल पर कभी न मिटने वाले निशां छोड़ जाते है..... हम आज उन्ही जलते हुए रिश्तों को लिए, बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर बैठे,ढलते सूरज को देखते है,तो यही सोचते है कि... काश कुछ बदल गया होता, तुम्हारे हमारे बीच तो यह राख नहीं, गुलफ़ाम होते ।